राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने की मांग कई वर्षों से चल रही है, जिसके लिए समय-समय पर आंदोलन भी हुए हैं। पहली बार 2003 में राज्य विधानसभा ने इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा था, लेकिन राजस्थानी भाषा आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त नहीं हो पाई।

हाल ही में, राजस्थान विधानसभा के पहले सत्र में नवनिर्वाचित विधायकों की शपथ ग्रहण के दौरान एक दिलचस्प घटनाक्रम सामने आया। कुछ विधायकों ने विभिन्न भाषाओं में शपथ ली, जिसमें 22 विधायकों ने संस्कृत में शपथ ली। लेकिन जब दो विधायकों ने राजस्थानी भाषा में शपथ लेना चाहा, तो प्रोटेम स्पीकर ने उन्हें रोक दिया, क्योंकि राजस्थानी भाषा आधिकारिक नहीं है।

बाड़मेर के निर्दलीय विधायक रविंद्र सिंह भाटी और बीकानेर के भाजपा विधायक अंशुमान सिंह ने राजस्थानी में शपथ लेने की कोशिश की, लेकिन स्पीकर के निर्देशानुसार उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया गया। दोनों विधायकों ने अंततः पहले राजस्थानी और फिर हिंदी में शपथ पूरी की।

इस घटनाक्रम के बाद राजस्थानी भाषा को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। कई लोग पूछ रहे हैं कि अगर राजस्थान विधानसभा में राजस्थानी भाषा में शपथ नहीं ली जा सकती, तो फिर यह मान्यता कब मिलेगी? हालांकि, कुछ लोग राजस्थानी भाषा की स्पष्टता पर भी सवाल उठा रहे हैं, क्योंकि राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग बोलियां बोली जाती हैं। उदाहरण के लिए, मारवाड़ क्षेत्र में मारवाड़ी बोली, कोटा में हाड़ौती बोली, और दक्षिणी राजस्थान में मेवाड़ी बोली प्रचलित है।

प्रोटेम स्पीकर ने यह भी कहा कि भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में राजस्थानी भाषा को मान्यता प्राप्त नहीं है, इसलिए इसे आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलवाने की मांग अब तक कई बार केंद्र सरकार के पास भेजी जा चुकी है, जिसमें 2003, 2009, 2015, 2017, 2019, 2020 और 2023 शामिल हैं। पिछली कांग्रेस सरकार ने भी इस दिशा में राजस्थान भाषा समिति का गठन किया था।

राजस्थानी भाषा की मान्यता में सबसे बड़ी बाधा इसकी लिपि का अभाव और विभिन्न बोलियों का अस्तित्व है। इस कारण यह स्पष्ट नहीं है कि किसे राजस्थानी भाषा माना जाए।

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